Mr. Vikas Singh Rathore

Vikas Singh Rathore
Senior Reporter
Dainik Bhaskar, Indore

कहावत को सच करते डॉक्टर साकेत जती पुरानी कहावत है कि धरती पर डॉक्टर भगवान का रुप होते हैं। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि डॉक्टर आपकी तकलीफों को दूर करते हैं, यहां तक की आपका जीवन तक बचाते है। इस कहावत को सच करते हैं इंदौर के ख्यात हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉक्टर साकेत जती। मैं उन्हें 'दादा' कहकर बुलाता हूं क्योंकि हमारे यहां बड़े भाई को 'दादा' कहा जाता है। वे सच में मेरे बड़े भाई नहीं हैं, लेकिन बड़े भाई से कहीं बढ़कर हैं। उनसे पहली मुलाकात 19 नवंबर 2014 को अरबिंदो अस्पताल में हुई थी। तारीख इसलिए याद है क्योंकि ये दिन शहर के लिए एक बड़े हादसे का दिन था। इस दिन एम.पी. फ्लाइंग क्लब का एक विमान क्रैश हो गया था। इसमें सवार पायलट अरशद की मौत हो गई थी वहीं फ्लाइंग इंस्ट्रक्टर पवनदीप को गंभीर चोट आई थी। दोनों को अरबिंदो अस्पताल में लाया गया था। पवनदीप को 100 से ज्यादा फैक्चर हुए थे और डॉक्टर जती ही उसका अन्य डाक्टरों के साथ उपचार कर रहे थे। पहली ही मुलाकात में मुझे वे पवनदीप के इलाज को लेकर किसी परिजन से ज्यादा चिंतित नजर आए जो आमतौर पर देखने को नहीं मिलता है। इसके बाद लगातार इस खबर के लिए मेरा अरबिंदो अस्पताल जाना बना रहा और पवनदीप की हालत जानने के लिए डॉक्टर जती से मिलना और फोन पर बात करना भी लगभग रुटीन बन गया। इसी दौरान वे कब मेरे 'दादा' बन गए पता भी नहीं चला। तीन महीने में 11 ऑपरेशन के बाद जिंदगी की जंग जीत चुका पवनदीप डिस्चार्ज होकर घर चला गया, लेकिन मेरा 'दादा' से चर्चा का सिलसिला जारी रहा। मेरी मम्मी श्रीमती संतोष राठौर को कमर और घुटने में लंबे समय से दर्द रहता था, एक बार स्लीप डिस्क का ऑपरेशन भी हो चुका था, लेकिन मम्मी की तकलीफ बनी हुई थी। एक बार जब मम्मी को ज्यादा दर्द था तो 'दादा' से बात की। उन्होंने तुरंत मम्मी को लेकर आने को कहा। पहली बार मम्मी से मिलकर उन्होंने कहा 'मां चिंता मत करो तुम ठीक हो और बहुत अच्छी हो जाओगी, आपका दर्द आज से मेरा हुआ'। मम्मी को उनका 'मां' कहना मेरे 'दादा' संबोधन को सार्थक कर रहा था। दिसंबर 2015 में मम्मी को दोबारा स्लीप डिस्क हुआ तो कुछ डॉक्टरों ने उनके दोबारा ऑपरेशन की सलाह दी और तीन महीने का फुल बेड रेस्ट भी सजेस्ट कर दिया। 'दादा' को बताया तो उन्होंने कहा घबराने की जरूरत नहीं है, उन्होंने मम्मी को बिना आपरेशन के ही कुछ इंजेक्शन लगाए और मम्मी को आराम होने लगा। 'दादा' ने फुल बेड रेस्ट से भी इनकार कर दिया और मम्मी की परेशानी भी खत्म होने लगी। लेकिन कुछ महीने पहले मम्मी को दो-तीन दिनों के सर्दी-जुकाम के बाद जब सांस लेने में दिक्कत होने लगी तो उन्हें डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने तुरंत मम्मी को आई.सी.यू में एडमिट कर लिया। मैं तो तब ऑफिस में ही था, फोन पर जानकारी मिलते ही मैं हॉस्पिटल के लिए निकल पड़ा। कुछ समझ नहीं आ रहा था। मम्मी की तकलीफ हड्डियों से जुड़ी नहीं होने के बाद भी मैंने 'दादा' को फोन लगा दिया। 'दादा' अपने सारे काम छोड़कर सीधे अस्पताल पहुंचे, तब तक डॉक्टर मम्मी की कुछ जांच करने के बाद अगले दिन एंजियोग्राफी प्लान कर चुके थे। 'दादा' ने डॉक्टरों से बात की और मम्मी को एक अन्य बड़े हॉस्पिटल में शिफ्ट करने के लिए एम्बुलेंस बुलाने के साथ ही उस हॉस्पिटल के पूरे स्टाफ को फोन लगा दिए। इस बारे में उन्होंने मुझसे कुछ पूछा भी नहीं, वे उस दिन में सच में अपनी 'मां' के लिए बहुत फिक्रमंद थे। कुछ ही देर में हम एक बड़े हॉस्पिटल में थे। जहां पहले से शहर ही नहीं बल्कि प्रदेश के तीन बड़े डॉक्टरों की टीम मम्मी का इंतजार कर रही थी। जाते ही उन्होंने सबसे कहा कि ये मेरी मां हैं और इलाज में कोई कमी नहीं रहना चाहिए। हुआ भी ऐसा ही। जब तक मम्मी एडमिट थी 'दादा' रोज सुबह-शाम हॉस्पिटल आते। जब वे हॉस्पिटल में नहीं भी होते तब भी हर पल मम्मी की तबीयत का हाल मम्मी का इलाज कर रहे डॉक्टरों से जानते रहते। मैं जब मम्मी की सेहत को लेकर परेशान था, तो मुझे अपने घर ले जाकर खाना भी खिलाते थे और मंदिर भी ले जाते थे। मम्मी का खाना भी हमारे घर से आने पर ऐतराज करते हुए खुद के घर से भेजने का कहते। उस वक्त लगा कि शायद मेरा कोई सगा भी मेरा इतना अपना नहीं है जितने 'दादा' हैं। पहले हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने जैसी तकलीफें बताई थी मम्मी को वैसा कुछ नहीं था, उन्हें लंग्स में इंफेक्शन हुआ था, सही समय पर सही इलाज मिलने पर मम्मी की हालत तेजी से सुधरी और कुछ ही दिनों में मम्मी स्वस्थ होकर घर लौट आई। अब भी मम्मी से मिलने के लिए 'दादा' तो खुद घर आते हैं और लगातार फोन पर 'मां' कहते हुए उनके हाल-चाल भी पूछते रहते हैं, मुझसे नहीं मम्मी से ही। मम्मी को अब पहले से कहीं ज्यादा राहत भी है और अपने 'बड़े बेटे' पर गर्व भी।

ये मेरी और 'दादा' की कहानी है। लेकिन क्योंकि रिपोर्टर हूं, इसलिए सबकी खबर रखने की आदत पड़ी हुई है। इसलिए 'दादा' की भी खबर रखता हूं और जानता हूं कि जैसी कहानी मेरी है, वैसी ही कहानियां उनसे जुड़े हर इंसान की है, क्योंकि वो सबकी तकलीफ को अपनी तकलीफ मानते हैं और उसी गंभीरता से उस तकलीफ को दूर भी करते हैं। मैंने देखा है कई गरीब और बेसहारा लोगों का भी इलाज वे उसी शिद्दत से करते हैं, जितनी शिद्दत से देश और दुनिया के नामचीन लोगों का करते हैं। यहां तक की जिन लोगों के पास इलाज के पैसे नहीं होते उनके इलाज का खर्च भी उठा लेते हैं, बड़ा खर्च हो तो कहीं से भी, किसी से भी और कैसे भी उसकी मदद किए बिना चेन की सांस नहीं लेते हैं। किसी अंजान इंसान के इलाज में भी छोटी सी भी चूक होने पर वे अपने जूनियर्स से लेकर सीनियर्स तक से भिड़ जाते हैं, लोगों को उस वक्त देखकर लगता है कि वे बहुत गुस्सैल हैं (थोड़े हैं भी, 'दादा' हैं तो 'दादागिरी' भी जरुरी है) पर उनका उस वक्त का गुस्सा मरीज के प्रति उनके समर्पण को दर्शा रहा होता है, जो शायद मरीज ही समझ पाता है। जिस कहावत से बात शुरु की थी उसी के साथ खत्म भी कर रहा हूं कि - 'धरती पर डॉक्टर भगवान का रुप होते हैं, डॉक्टर साकेत जती इस कहावत को सच करते हैं।'